सामान्य - General

बस में मिली मेरी रोज़ की सहेलियाँ
एक थी इंजीनियर, एक अकाउंटेंट
एक प्राथमिक कक्षा की अध्यापिका
दूसरी प्राध्यापिका,
हम मुस्कुराते,
देर क्यों हुई बताते
परेशानियाँ बाँटते
रोज़ की भीड़ से चिढ़ते
फिर बाय-बाय कहकर उतर जाते।
पर अब नये दोस्त नहीं बनते
युवतियों के कानों में
हेडफ़ोन हैं बजते
वे खिड़की से प्रकृति को नहीं निहारते
कुछ थके-हारे बैठे-बैठे सोते
अब कहाँ रहा वो अपनापन, वो विश्वास
सब अपनेआप में मदमस्त रहते,
और पी.आर. व बातचीत करना,
कक्षा में सीखते।
कल्पना की दुनिया में
क्या कुछ नहीं होता
झूठ और सच का फ़र्क
एक पल में मिट जाता।
हर बात निराली होती
असंभव, संभव बन जाता
इस जीवन में जो न मिला
वो उस दुनिया में मिल जाता।
कुँआरी दुलहन बन इठलाती
कवि वैज्ञानिक बन जाता
कंगाल पल में अमीर बनता
एकाकी को साथ मिल जाता।
आँख खुलने पर फ़िर वही सच्चाई
क्षणिक आनंद से क्या हो जाता
अविश्वास से यथार्थ नहीं बदलता
दुखों का पहाड़ कम नहीं होता।
पर सबको है कल्पना-जगत भाता
जब कोई उसमें खो जाता
तो क्या बताएँ कैसा है लगता
वापस आना मुशकिल हो जाता।
रक्षा बंधन का आया त्योहार
पर तुम नहीं हो मेरे पास
याद तुम्हारी पल-पल आती
चमकीली आँखें व बोली मिठास।

किससे खेलूँ और लडूँ अब मैं
याद आती तुम्हारी बातें खास
काश तुम मुझसे दूर न होते
राखी बाँध लेते, होकर पास।

प्यारे दादा जहाँ भी हो तुम
पाना सदैव सुखमय एहसास
दुख तुम्हारे सब मुझे मिल जाए
स्वर्गीय आनंद हों, तुम्हारे पास।
पढ़-लिखकर जवान बनना
शादी करना और बच्चे संभालना।
खूब कमाकर उनकी भी शादी रचाना
और बुढ़ापे में मरने का इंतज़ार करना।
क्या यही होता है जीवन को जीना?
या शायद जीवन को बिताना।
मुझे भी यही सब पडेगा करना
पर चाहती हूँ कुछ और भी होना।
सात जन्मों के व्रत मुझे नहीं रखना
मैं तो चाहती हूँ मुक्ति को पाना।
नफ़रत है मुझे बुढापे से जो
इनसान को आधा पागल बनाती
बूढ़ों के साथ रहता है जो
उनकी सनक है उन्हें सताती।

पल-पल असंतृप्त, अप्रसन्न
रहते हैं वे चिढ़-चिढ़ करते
कुढ़ते, जलते, निराश, खिन्न
समाधान को जैसे भूल ही जाते।

दूसरों पर निर्भर, दूसरों पर बोझ
ऐसा बुढ़ापा मुझे कभी न आए
रहूँ अंत तक मैं आत्मनिर्भर
सबका प्यार पाकर, सुखद मृत्यु आए।


जीवन के दर्शन - Philosophy of life

जीभ पर नियंत्रण
हाथों को अथक काम
मन में सद्विचार और
सदैव श्याम नाम
देने को दया व क्षमा
लेने को प्रभु का नाम
इच्छाएँ कम तथा प्रेम अधिक
तो तेरा घर ही चार धाम
तो तेरा घर ही चार धाम।
जब कोई अपना दुखी कर देता है
आँसुओं का कारण बन जाता है
हमारी इच्छाओं को कुचल देता है
निराशा से जीवन भर जाता है
जब दुख के सागर में तैरना मुशकिल होता है
अपनों को भी रुलाने का मन करता है,
तब आत्महत्या की याद आती है
वह आकर्षक सुंदरी लगती है
उसकी गोद में सोने का मन करता है
वह हर समस्या का समाधान लगती है।

दिमाग़ फिर सोचने लगता है
मरने का आसान तरीका क्या है

गोली, नदी, चाकू, रस्सी, आग या ज़हर
किसमें मौत की गॅरेंटी ज्य़ादा है।
पर कुछ देर बाद दिल कहता है
तू जीने से क्यों इतना डरता है
स्वयं कायर बनता है और
पीडा में भगवान को कोसता है।
ऐ दिल, हीरा जितना घिसता है,
गहनों में उतना चमकता है।
कितने अजीब होते हैं
ये भविष्य बताने का
व्यापार करनेवाले
कहते हैं, बीती बात बताएँगे
होनेवाली घटनाओँ की
चेतावनी देंगे
शादी कब होगी तुरंत बताएँगे
मुनाफ़ा होगा या नहीं
ये ताड़ लेंगे
बच्चों की ज़िंदगी सुधारेंगे
भावी जीवन के दुखों
से बचाएँगे।

पर इनसे पूछो तो
ये भी मानेंगे
नियति व भगवान

सबसे ऊँचे हैं – वे कहेंगे।
मनुष्य का कर्म ही
उसका भविष्य वनाता है
ये बात वे भी मानेंगे।
सूर्योदय हुआ, उजाला फैला
दीपक का प्रकाश धीमा लगा
कहा रवि से – ‘तुम शक्तिशाली
भास्कर, और मैं तुच्छ दीप।’
सूरज ने कहा – ‘उदास क्यों हो?
तुम भी तो प्रकाश देते हो
मैं तो सिर्फ़ दिन में आता हूँ
तुम तो रात में भी जलते हो।’
एकांत में दुखी होकर
अकेलेपन में उदास होकर
जीवन से अपने निराश होकर
न रहना कभी तुम मेरे मन।

ज़िद और अहंकार में पड़कर
नफ़रत में चूर, पागल होकर
जीवन को अपने नर्क बनाकर
न रहना कभी तुम मेरे मन।

झूठी शान में अपनों को खोकर
पैसों के लिये रिश्ते तोड़कर
प्रेम का सच्चा अर्थ भूलकर
न रहना कभी तुम मेरे मन।

अपना ध्यान ईश्वर में लगाकर
उसकी सच्ची उपासना कर
मोह-माया से सदा दूर रहकर
निश्चिन्त रहना तुम मेरे मन।
कौन है कुरूप, कौन असुंदर
कोई नहीं रे कोई नहीं
सबमें हैं खूबसूरती कोई
बदसूरत यहाँ पर कोई नहीं।

शरीर से हैं रूपवान कोई
मन की सुन्दरता किसी ने पाई
सद्गुणों की खान है कोई तो
किसी में प्रेम व ममता समाई।

क्यों कुरूप समझते हो अपने को
ईश्वर ने दी उपयोगी काया है
सुन्दर है जीवन सुख-संतृप्ति से
प्रेम से जो देखो, वही सुंदर है।
ज़िंदगी है एक ऐसा शब्द
जिसकी न कोई परिभाषा
किसी के लिये है आशा
किसी के लिये केवल निराशा।
किसी के लिये यह युद्ध
किसी के लिये रंगीन चमन
किसी के लिये है विश्राम
किसी के लिये संघर्श।
किसी के लिये यह सफ़र
किसी के लिये पहेली
ज़िंदगी के हैं कई रूप
जिसमें सब प्रकार की रंगोली।
किसी के लिये यह गुलाब का फूल
किसी के लिये केवल काँटे
कोई इससे है मुँह मोड़ लेता
कोई अपने प्रण से कभी न हटें।
जीवन के भवसागर को
जो करेगा कशिश नापने की
विफल हो ड़ूबता जाएगा वह
समझ न पाए सच्चाई जीवन की।
जीवन का चाहे जो रूप मिलें
सुख अथवा दुख कभी आता है
इसे स्वीकार कर जीने वाला ही
इस संसार का सच्चा मनुष्य है।
जीवन के भवसागर में डूब रही थी मैं
मृत्यु को बाहुपाशों में जकड़ रही थी मैं।
पर ड़ूबने से बचाया मुझे तुमने है
जीवन की नई राह दिखाई तुमने है।
मेरे आँगन के उजड़े चमन में खिले फूल हैं
हर तरफ़ आनंद, हरियाली और इत्साह है।
मैंने जाना दूसरों का दुःख मुझसे अधिक है
इस काया से भी हो सकती किसी की भलाई है।
हर व्यक्ति के उर में हैं संतोष
सुख-समृद्धि से हैं व्याप्त सभी
न किसी को है व्यसन न कोई व्याधि
दीनदयालु, लोकोपकारी हैं सभी।
काँटे कम, राहों में है फूल अधिक
मोतियों की माला सी, प्रेम में बंधे सभी
चहुँओर भाईचारा, हर नारी है देवी
आपस में लड़ते नहीं वे कभी।।

पर अचानक निद्रा टूटी वह मेरी
सुंदर स्वप्न था वह मैंने देखा कोई
समाचार-पत्रों में मैंने फिर से देखी
वही लूटमार, हत्याएँ, अन्याय और भुखमरी।
कहते हैं ये लोग मुझसे सभी
स्वप्न होते नहीं हैं सत्य कभी
पर ईश्वर से यही प्रार्थना है मेरी
हो जाए सच, मेरा यह स्वप्न कभी।।

ये आँसू अनमोल मोती हैं
मनुष्य के सच्चे साथी हैं
सुख के साथी सब छूट जाते हैं
दुख में ये ही काम आते हैं।

खुशी के आँसू बन छलकते हैं
दुख में भी साथ निभाते हैं,
इनसे सीखो सच्चे साथी का अर्थ,
जो सुख-दुख में समान रहते हैं।

पैसों से तुम्हें इतना प्रेम क्यों है?
धन के लोभ में पागल क्यों है?
यह तो दो दिन की है सहेली
पर सबके मन की रानी यह नार नवेली।
अपनी सुंदरता और चमक-खनक से
अपने जादू और क्षणिक प्रेम से
सबको अपना दीवाना वह बनाती
रिश्वतखोर, लालची व पापी वह बनाती।
उस सुंदरी को पाकर घमंड आ जाता है
पूरे संसार को पाने की इच्छा होती है
मानवता को वह कुचल सकती है
दुनिया को अपनी उँगलियों पर नचा सकती है।
पर धन-सुंदरी के प्रेमियों एक बार
नहीं, सोंचकर देखो तुम बार-बार
क्या वह प्रेम और मन दे सकती है?
क्या मृत्यु को आने से रोक सकती है?
उठो और आगे बढ़ो मेरे मित्र
न करो भाग्य पर विश्वास तुम
हाथ की रेखाएँ बदल सकते हो
परिस्थिति को अपने अनुकूल बनाओ तुम।
डरकर न कभी शस्त्र त्यागना
चल रही जब तक तुम्हारी साँस
असंभव को संभव बनाओगे तुम
रहे अगर बस आत्म-विश्वास।
बुढ़ापा क्षीण, निर्बल
दूसरों पर है निर्भर।
बचपन है भोला, मासूम
अनजान एवं निर्मल।
यौवन में है उमंग, जोश
कर्तव्य, कर्म और ज्ञान,
जीवन का सत्य आनंद
खो न देना बनके नादान।
क्या करें कोई जब
स्वर्ग नर्क बन जाए?
परेशानियाँ ढ़ेर सारी घेरें
शिकायतों की कतार लग जाए
खुशियों से भरा घर
सूना और वीरान हो जाए
क्या करें कोई जब
स्वर्ग-सा घर नर्क बन जाए?

साथ जीना मुशकिल है तो
उनके बिना भी चैन न आए
प्यारे, अपनों से ही जब
झूठ बोलना पड़ जाय
जवानी में ही तंग होकर
मृत्यु की प्रतीक्षा की जाय
क्या करें कोई जब
घर स्वर्ग से नर्क बन जाय?

दिल कहता है बार-बार
आशा न छोड़ी जाय
खुशियों के मौसम का
इंतज़ार किया जाय
हिम्मत से आगे बढ़कर
ज़िंदगी को जिया जाय
बस यही किया जाय
जब स्वर्ग नर्क बन जाय।
जीवन के इस कारागार से
न जाने कब मिलेगी मुक्ति
जहाँ ‘मत कर’ के नियम अधिक
है कितना मोह तथा आसक्ति।

यह मत कर, वह मत कर
ऐसा मत कर, वैसा मत कर
बेचैन मन इस झंझट में पड़कर
जाने कब चलें आज़ाद बनकर।

धर्म, न्याय, त्याग, प्रेम
यही तो है सच्ची शक्ति
नियम व प्रतिबंध न होते
तो होती न मन में भक्ति।

जीवन एक कारागार, सत्य है
यहीं सजा है हमारे पापों की
पर जो अच्छा काम करें हैं
उन्हें जल्दी मिल जाती है मुक्ति।

ज़िंदगी में मेरे आज
ऐसा मोड़ आया है
कि मर नहीं सकती मैं
और जीना मुशकिल हुआ है।

कैसे कहूँ कि प्यार ने आज
ऐसा रंग दिखलाया है
कि जिसपर मैं मरती हूँ
उसी ने जीना मुशकिल किया है।

मर नहीं सकती मैं, यह
ज़िंदगी उसी की अमानत है
पर मौत आ जाए आज तो
वह खुशी का भंडार है।


प्रकृति - Nature

मनमोहक वर्षा ऋतु आया
अपने संग हरियाली लाया
सूखेपन को किया पल में दूर
मन में मेरे नवचेतन जगाया।
चल-चल करता जल बरसाया
सूखे पौधों में प्राण जगाया
दुख के बाद आता है सुख
हर्ष की बूँदों से जताया।
कई पेड़-रौधे-बेल इस धरती पर
एक का दूसरे से साम्य नहीं
कुछ पौधों में हरियाली है
पर फल या फूल नहीं
गुलाब में कई काँटे हैं
रजनीगंधा में वृक्ष सी ऊँचाई नहीं
केकटस में केवल काँटे ही है
तो कुछ पौधों में फूल अधिक
ऊँचाई, फल-फूल, हरियाली है
तो उस वृक्ष के फूलों में सुगंध नहीं
विषैले पेड़ हर कहीं लग जाते हैं
पर चंदन का हर जगह नहीं।
हर पेड़ में कोई न कोई कमी है
पर अपनी-अपनी है विशेषता समाए
प्रकृति का यह रूप हमें सिखाता
पेड़ों की भाँति मनुष्य भी पूरा नहीं
कुछ न कुछ कमी है अवष्य ही
चिर सुखी, दुख से अपरिचित, कोई नहीं।
कभी इतना इंतज़ार करवाती
कभी बिन बुलाये ही आ जाती
मुझको चैन से पढ़ने न देती
आकर मेरे नैनों में बस जाती
क्या बताऊँ कितना वह सताती
फिर भी उस बिन चैन न पाती।

बीमारी में वह आराम है देती
मेरी थकान को वह दूर करती
दबे पाँवों से जब भी वह आती
मुझे अपनी आगोश में ले लेती
किसी बात की सुध-बुध न रहती
ऐसी मेरी नींद, प्यारी है लगती।


बचपन - Childhood

किताब में रखे सूखे फूल ने
बचपन की यादें ताज़ी कर दी
और मेरे मन ने कुछ देर
अतीत की सुहानी सैर कर ली।

सोचा अब कहाँ है वह दिल
जो फूलों से प्यार करता था
मुस्कुराता, सपने देखता तथा

सबको दोस्त बनाता था।
हम बदले, कुछ परिस्थितियाँ बदलीं
प्रकृति को निहारने की फुरसत कहाँ
नौकरी व रिश्तों के झंझट में ऐसे फंसे
अपने ही दिल में झाँकने का समय कहाँ।
चाहे डॉक्टर बनो या इंजीनियर
तुम विमान चलाओ या कम्प्यूटर

कलाकार बनो चाहे गणितज्ञ
वैज्ञानिक बनो या कोई विशेषज्ञ

पर इतना याद रखो मेरे लाल
प्रगति करते रहना हर साल।

तुम दूसरों का सहारा बनो
दुष्ट नहीं, दीनदयालु बनो।

छीनना नहीं, हमेशा देना सीखो
रोना नहीं सदा मुस्कुराना सीखो।

कलियुग के इस अंधकार को देखो
इसमें ज्ञान-ज्योति प्रज्वलित रखो।

कायर नहीं लाल तुम वीर बनो
अभिमानी नहीं, स्वाभिमानी बनो।

जो भी करो या जो भी बनो
प्रभु को अच्छे लगनेवाले बनो।

मेरे लाल, तुम प्यार पानेवाले बनो
तुम एक अच्छा इनसान बनो।
कितने भोले व मासूम होते हैं बच्चे
कितना प्यार और विश्वास करते हैं
होते बात के और दिल के ये सच्चे
मुस्कुराकर हमें मोहित कर लेते हैं।

पर जैसे-जैसे ये बढ़ते जाते
प्यार वासना में बदल जाता है
अहंकार, संदेह, लालच आ जाते
पुण्य की जगह पाप बढ़ जाता है।

क्या कहें कैसे बन जाते बच्चे
बड़े होकर कलुषित वे हो जाते
काश लोग अपनी अच्छाई बचाते
औ जग में नया स्वर्ग बनाते।
प्रभु तुम्हारी हम पर
ऐसी कृपा हो जाए
सुख-वैभव खूब मिले
पर मन में भक्ति समाए।

लौकिक आकर्षण से दूर रहे हम
गीता के उपदेश को अपनाएँ
प्रेम, त्याग, ज्ञान, संघर्ष, से
विकास के पथ पर जाएँ।

अधर्म के इस घोर कलियुग में
मन को नियंत्रण में लाए
विकासशील नहीं यह भारत
विकसित देश कहलाए।


महिला -Women

जो न होना था वही हो गया
नारी का जीना दूभर हो गया
नयी सदी में ये क्या हो गया
पुरुष का पुरुषार्थ खो गया ?

नाटी, मोटी, कुरूप, काली,
अनपढ़, चरित्र हीन आली,
जैसी भी हो चलेगी पत्नी
शर्त इतनी, हो दहेजवाली।

दिशाहीन ये आगे बढ़ते हैं
ध्येय नहीं, फिर भी चलते हैं
पढ़ने की इच्छा नहीं रखते
माँ-बाप के कहने पर करते।

उदास, अकेले, ज़िद्दी, निठल्ले,
परीक्षा में अनुत्तीर्ण जब होते,
बेरोज़गार होकर दर-दर घूमते
पत्नी की कमाई पर जीना चाहते।

लाखों रुपये, गाड़ी, फ़्लैट, ज़ेवर
क्या-क्या नहीं माँगते दहेज में
शादी में बिकते अपना दाम लगाकर
स्वाभिमान व शर्म भूलते, लालच में।

कायर, नामर्द, दयनीय, बेरोज़गार,
नीच, दुष्ट, बेशर्म, कुपात्र बनते
पत्नी का सब कुछ लूटकर
एक दिन उसे जला भी देते।

ऐसे पुरुष क्या देश बनाएँगे?
नयी पीढी को क्या सीख देंगे?
सुरक्षा की इच्छा होती जिनसे
वे ही चहुँ ओर नर्क फैलाएँगे।

जो न होना था वही हो गया
नारी का जीना दूभर हो गया
नयी सदी में ये क्या हो गया
पुरुष का पुरुषार्थ खो गया।
एक थी ऐसी सुंदर लड़की
जिसका नाम था ज्योत्स्ना
हरदम खुश रहती और मुसकाती
सबको समझती थी वह अपना।

प्रेम और अपनापन दिखाती वह
दुर्गुण उसमें कभी न मिले
आकर्षक व्यक्तित्व में था भोलापन
सब लड़के कहते, “वह मुझे मिले।”

एक दिन शादी हुई उसकी भी
मनचाहे साथी से हुआ मिलन
प्रेम, विश्वास, धन व सम्मान
देता बन वह प्यारा साजन।

सुखी संसार के दो वर्ष बीते
उनको एक पुत्र हुआ, चंदर
दोनों की आँखों का तारा वह
लगता जग में सबसे सुंदर।

घूमने निकल पड़े तीनों एक दिन
सिनेमा देखकर बगीचे में गये
होटल में खाना खाया और
ख़ूब खेल-खूद व मज़े किये।

लौटने लगे जब घर को वापस
ख़ुशी में चूर स्कूटर पर सवार
आचानक पीछे से कार टकराई
दुर्घटना ने दिया दुःख अपार।

चंदर को गहरी चोटें आईं
ज्योत्स्ना हुई बेहोश तुरंत
वह भी घायल, रक्त से भरा
घटना हुई गंभीर अत्यंत।

ज्योत्स्ना उठी तो उसने देखा
आस-पास भीड़ जम गयी हैं
सब देख-सुन रहे थे मगर
सहायता करने से कतराते हैं।

पति और बेटे को घायल देख
उसने जल्दी एम्ब्यूलेन्स को बुलाया
पुलिस तथा लोगों की मदद से
उन्हें अच्छे अस्पताल पहुँचाया।

वह बच गई, पर हाय रे भाग्य !
चंदर का स्वर्गवास हो गया
आधे घंटे में समाचार मिला
उसके पति ने भी देह त्याग दिया।

प्रसन्न वातावरण से हुआ दिन प्रारंभ
उसका अंत हुआ इतना भयंकर
एक क्षण में खो गया सब कुछ
अब क्या करेगी वह अकेली जीकर।

ऐसा दिन किसी को देखना न पड़े
जहाँ अपने लोग एक पल में बिछड़े
रो-रोकर मुशकिल से दो महीने गुज़रे
सोचा, ज़िंदगी से यूँ कब तक लड़े ?

मैं भी क्यों न जाऊँ अपनों के पास
बिना उनके सब कुछ है उदास
निरंतर लगी है आँसुओं की धार
सिर्फ़ इंतज़ार है कि रुक जाए साँस।

दिन नौकरी में व्यस्त होकर जाता
पर रातें कटती नहीं, काटती थीं
फिर वही यादें, फिर वही उदासी
उसे परेशान तथा पागल बनाती थीं।

एक दिन सड़क़ पर उसने कुछ देखा
उसे देख उसका दिल ज़ोर से धड़का
दोनों टाँगें खोकर भीख माँग रहा था
सुंदर, मासूम चेहरेवाला एक लड़का।

तुरंत ज्योत्स्ना ने भगवान से कहा
प्रभु ! धन्यवाद, मेरा बचपन सुखमय बीता
परिवार का सुख अब मेरे पास नहीं
पर अपाहिज बनकर जीवन नर्क होता।

उसने मन में ठान ली एक बात
अपने जीवन को बनाएगी उपयोगी
अब जीवन में एक लक्ष्य बनाकर
समाज-सुधार में वह बनेगी सहयोगी।

एक महीने बाद उसके घर में
वही लंगड़ा बालक खेल रहा था
कानूनन ज्योत्स्ना ने उसे गोद लिया
वह प्यार से उसे ‘माँ’ बुलाता था।
सुख-दुख, उत्साह-उदासी जहाँ बराबर
जहाँ बहते अश्रु लोचनों से निरंतर
एक ही बार जीवन में ऐसा आता अवसर

मन का हाल बता न पाती जहाँ शब्दों में,
सखी तुम बंधी ये किस बंधन में?

हाय! जहाँ अपने संबंधी सब हुए पराए
जिनसे मिलकर बचपन से सपने संजोए
जाओगी दूर बहुत सपने नितनये सजाए

हमें छोड़ तुम सुखी रहोगी क्या परदेश में,
सखी तुम बंधी ये किस बंधन में?

बार-बार तुम्हारी याद आएगी हमें
जब रहोगी तुम अपने पिया के घर में
माँगें तुम्हारे लिये सुख प्रार्थनाओं में

लगेगा जैसे खिले न फूल बगीचे में,
सखी तुम बंधी ये किस बंधन में?
प्रभु मुझे शक्ति देना मैं
जीवन-पथ पर आगे बढ़ती जाऊँ।
चौराहे पर खड़ी हूँ मैं आज
विवेक से सुपथ को अपनाऊँ।
धैर्य और लगन देना मुझे
ताकि अनेक दुखों से न घबराऊँ।
जीवन के संघर्श को स्वीकारूँ
कठिनाइयों को जीत, अपराजिता कहलाऊँ।
सुंदर नवेली दुलहन आयी
दहेज में अपने सद्गुण लायी
जैसा नाम वैसी ही थी ‘सुगुणा’
ससुराल में स्वर्ग-सी खुशी आयी।

जीत लिया मन उसने सबका
देवर, ननद, जेठ, सास-ससुर का
भूल गयी थी वह मैके का घर
पाकर प्यार अपने पति का।

एक दूसरे से अमित प्रेम वे करते
कोई रहस्य की बात न छुपाते
उन्हें देखकर यही सब लोग कहते
‘दो शरीर एक आत्मा’ हैं वे लगते।

पर मधुर संबंधों में पड़ रही दरार थी
पति ने देखा, वह चिट्ठी लिख रही थी
पूछा उसने, ‘सुगुणा किसको लिखती हो?’
बात टाल उसने चिट्ठी छिपायी थी।

पति के आश्चर्य का कोई ठिकाना न था
उसने कोई रहस्य-भेद छिपाया न था
बार-बार वह लिखती कोई चिट्ठी थी, जिसे
उसने एक दिन छुपकर पढ़ लिया था।

हाय! यह कैसी विश्वास घातक बात हुई
प्रेमपत्र था किसी दूसरे के नाम वह कोई
उस चिट्ठी ने किये दिल के अनेक टुकड़े
अब सुगुणा की हर बात लगती बनावटी।

यह बात उसके सहनशक्ति से बाहर की थी
पत्नी से विस्मय, क्रोध, घृणा होती थी
उसने गला घोंट उसके प्राण ले लिये
जब वह सुखद स्वप्नों में खोई हुई थी।

प्रसन्नचित्त वातावरण घर का सुंदर
बन गया आँसुओं से गीला शोकातुर
देहान्त हो गया प्यारी बहू सुगुणा का
मधुर स्वर गूँजता था जिसका घर में निरंतर।

पता चला पति को भाई से तदनंतर-
“भाभी लिखती थी कहानियाँ अतिसुंदर,
उपन्यास लिख रही थी वह कोई मनोहर,
देना चाहती थी तुम्हें, पहला अंक छपवाकर।”
ओ माँ !
सुनो मेरे मन की बात
जानना चाहती हूँ मैं
दुख होता है क्या?
फूल न बिखेरो यूँ राहों पर मेरे
जानने दो मुझे
काँटों की चुभन होती है क्या?
अपने आँचल से हटा दे मुझे
मैं अनुभव कर तो लूँ
कैसे होती है बुरी नज़र
गिरने से बार-बार यूँ न बचाओ
ज़रा मैं जान तो लूँ
लगती है कैसे ठोकर।
ओ माँ!
किसी बात की अति अच्छी नहीं
सुख की छाया में
मेरा मन अब लगता नहीं
प्रेम की बेड़ियों से छूट
दूर उड़ान भरने दो
मैं जानना चाहती हूँ
अपनों की दूरी होती है क्या?
तपती और जलाती
दुख की धूप होती है क्या?
नारी है कोमल सुंदर पौधा
और पुरुष है उसका माली
प्रेम-जल से पौधे को सींचता
फल-फूल देकर वह फैलाती हरियाली।
आँगन में सजाकर रक्षा करता माली
पर करता कभी उसे उपेक्षित
निस्वार्थ, निरभिमानी, प्यारी आली
कर्तव्य निभाती, सेवा करती अमित।
किसी पर बोझ बनूँ मैं
अपने ही मुझसे तंग होएँ
इंतज़ार करें मेरे जाने का
दिन ऐसा कभी न आएँ।
सबको प्रेम देकर मैं
अपनों को समझ सकूँ
सुख-दुख उनके बाँटकर
अच्छी वनिता बन सकूँ।
छोटी-सी गलती हो गई मुझसे
तो माँ कहने लगी झट से
ससुराल में अपने गर करोगी ऐसे
तो निकाल देगी सास घर से।

पूछा मैंने-“ क्या सास राक्षस होती है?”
तो कहा-“ उससे भी खराब होती है”
बचपन से लगाया ठप्पा सा मन में
माँ अच्छी, पर सास बुरी होती है।

दुलहन बन जब गयी मैं ससुराल में
खोजने लगी बुराइयाँ सास के हर काम में
प्यार से बोलती तो लगता नाटक है
हर बात में भर आता शक दिल में।

माँ काम नहीं कर पायीं
तो वह बूढी और थकी हुई है
सास ने काम कुछ नहीं किया
तो लगता बहू को सताती है।

माँ की गालियाँ भी प्यारी लगतीं
पर सास का गुस्सा खून उबालता है
बाद में जाना सास भी एक माँ है
पर बुढ़ापे की बीमार होती है।

माना कुछ लोग स्वार्थ में अपने
दहेज के लालची हो जाते हैं
पर हर सब्ज़ी करेला नहीं होती
और हर सास बुरी नहीं होती ।



प्यार - Love

सोंचा बह गया दुख आँसुओं से
मेरा प्यार कम हो गया तुम से
सोंचा था तुझे भुला दिया है मैंने
पर याद आयी तुम्हारी फिर से।

तेरे जाने के बाद पछताई कसम से
कहना था मुझे कि प्यार है तुम से
किछ शरमाई, सकुचाई और घबराई मैं
परिणामस्वरूप, जुदा हो गयी तुम से।

अब निरंतर आँसू बहते हैं नैन से
दुख तो दुगना हो गया हो जैसे
तुम्हें चाहने की अभिलाषा में
हमेशा के लिए दूर हुई तुम से।
सुंदर बगीचे में
सुंदर लगती घास
उसपर बिछी चादर
हम दोनों हैं पास,
एक दूसरे की बाहों में खोए
नैनों में प्रेम एवं विश्वास,
मनोहर ज्योत्स्ना छिटकी
मन में भरा नव उल्लास,
दोनों के मिल गए आज
तन, मन, प्राण व साँस।
मुझे छोड़ यूँ कहाँ गये तुम
क्या मुझसे रूठ गये थे तुम
दूर मुझसे कितने हुए तुम
एक जान थे मैं और तुम।
आँखों से ऐसे ओझल हुए तुम
अस्तित्व ही मेरा मिटा गए तुम
कई दिनों बाद फिर दिखे तुम
जीवन में खुशी बन छाए तुम।
चाहे जहाँ भी चले जाओ तुम
मेरा सच्चा प्यार हो सिर्फ तुम
मेरे सिवा कहाँ जाओगे तुम?
मेरे प्यार में पिया, बंधे हो तुम।
जिसका है मुझे इंतज़ार
जिसके लिये है दिल बेकरार
होगा जो मेरा हम सफ़र
वो हो केवल तुम।

जिसकी सदा आती है मुझे याद
है जिसके लिये मन में फ़रियाद
विरह मुझे जिसका करेगा बरबाद
वो हो केवल तुम।

बनूँगी मैं जिसकी आन और शान
करूँगी जिसके अधरों का मैं पान
होगा जो मेरा सदा मन प्राण
वो हो केवल तुम।

निखिल आकाश रखेगा जो मेरे चरणों में
मेरे लिये लड़ेगा जो इस संसार में
बुझने न देगा जो मेरा मन-दीप तूफ़ानों में
वो हो केवल तुम।
चमन में खिले नवविकसित फूलों को
इंतज़ार है किसी भंवरे का।
अमावस की अंधेरी रैना को
इंतज़ार है चाँदनी रात का।
ग्रीष्म में तपती हुई भूमि को
इंतज़ार है बरसात की बूँदों का।
प्रकाश फैलाते छोटे दीपक को
इंतज़ार है किसी पतंगे का।
मैंने पाया मेरी ही भाँति
सभी करते इंतज़ार किसी का।।
मुझे गहनों की न ज़रूरत पिया
तुम बस रहो हरदम मेरे साथ
न चाहिये मुझे मोतियों के हार
बस डालो मेरे गले में अपने हाथ।

तुम्हारी बाहें हैं मेरे चंद्रहार
होठों की लाली है तुम्हारा चुम्बन
तुम्हारी काया की कांति के आगे
फीका लागे है चमकीला कंचन।

न चाहूँ मैं अंगूठी या कीमती कंगन
बेकार हैं ये मेरे सोने के पायल
मैं न चाहती ये वस्तुएँ निर्जीव
चाहती मैं तुम्हारा सान्निध्य केवल।

तुम्हारे साँसों की मनमोहक खुशबू
आती नहीं इन सुंदर फूलों में
जब आते तुम्हारे सपने बार-बार
लगाती नहीं मैं काजल नयनों में।

धन-सेपत्ति ये हीरे छोड़ तुम
मुझसे समय बिताने का करो जतन
मेरे जीवन में सिर्फ़ तुम ही साजन
हमेशा रहोगे बनकर अनमोल रतन।
हमें पत्थर दिल तो न समझो
इस सीने में भी दिल धड़कता है,
दिखते हम सदा कठोर है
पर यह मन अति कोमल है।
आपके हाथों में कुछ जादू है
मोम-सा पिघला दिल जिसके छूने से,
हमने लाख झुठलाना चाहा हरदम
पर प्यार करता है यह आप ही से।
गई बीत ज्योत्स्ना यामिनी
सूनी हुई मेरी प्रेम रागिनी
तड़पी मैं हर क्षण एकांत वासिनी
किंतु प्राणाधार तुम न आए।

बैठी हूँ प्रतीक्षा करती मैं विरहित
न जानती हुए तुम क्यों विलंबित
सूखा मेरा हृदय था पल्लवित
किंतु प्राणाधार तुम न आए।

हुई असहनीय पीड़ा यह अब
लगता न मन किसी बात में अब
धड़कनें तुम्हें बुलाती बार-बार सब
किंतु प्राणाधार तुम न आए।
उनकी बाहों से हमें छीना तो क्या कर लिया
हमने तो उनके दिल में है जगह बना लिया।

हम दोनों को मौत भी अलग कर नहीं सकती है
मैं सुंदर फूल हूँ, और वे उसकी सुगंध हैं
इत्र के लिये तुम ने उसे छीना, तो क्या कर लिया
सुगंध के साथ फूल का भी नाम रौशन हो गया।

सच्चा प्यार कभी असफल नहीं हो सकता है
वियोग में वह और भी घनिष्ठ हो जाता है
शरीर से हमें जुदा किया तो क्या कर लिया
प्रेम ने हमारी आत्माओं को एक बना दिया।
मन की अभिलाषा कब होगी पूरी
कब मिटेगी तुम से ये दूरी?
दृगों से छलकते आँसू हैं
मुँह से आहें निकलती हैं
क्या रह जाएगी मेरी इच्छा अधूरी?
कब मिटेगी तुम से ये दूरी?
हँसते-गाते कब हम बातें करेंगे?
खेल-छेड़छाड़ करते क्षण कब आएँगे?
मेरी यह प्रतीक्षा होगी क्या पूरी?
कब मिटेगी तुम से ये दूरी?
प्रिय कब होगा सहवास तुम्हारा
कब आवेंगे वे मधुर
अविस्मरणीय प्रेम के पल
और होंगे दो प्राण एक
दो आत्माओं का मिलन
विरह में मन हो रहा विकल।
तुम और हम आज मिले ऐसे
रात से चाँदनी मिलती हो जैसे।
वर्षा की बूँद धरा से जैसे
सरिता सलिल समन्दर में जैसे।
तुम और हम आज मिले ऐसे
काया में बसती आत्मा हो जैसे।
यूँ गई तुम मुझे छोड़
तुम बिन पागल न हो जाऊँ कहीं
मैं डरती हूँ
दूर हो मुझसे इतनी तुम
न छू सकती हूँ
न देख सकती हूँ।
फिर भी हो मेरे पास
देखती हूँ लोचन मूँद तुम्हें
चाहती मैं एक ही बात
मिले प्रेम और शांति तुम्हें
रहो हर पल सुख में।
उन शरारत भरी आँखों से
देखो मुझे फिर से तुम।
मीठी, सुरीली आवाज़ से
पुकारो मुझे फिर से तुम।
दुःख सारे भुलाकर मेरे साथ
मुस्कुराओ आज फिर से तुम।
मुझे छोड़ जो दूर गये हो
वापस आओ फिर से तुम।
खुशी के आँसुओं में बदल दो
इन आँसुओं को फिर से तुम।
दिन के बाद रात सी
बचपन के बाद यौवन सी
अमावस के बाद चाँदनी सी
लो आ ही गई तुम्हारी याद।

सावन के बाद जाड़ों सी
पेड़ों से झरते पत्तों सी
मेरे मन को चुभोती सी
कई आँसू लाती तुम्हारी याद।

जीवन की नई राह बताती
भूल से भी भुला न पाती
दिल में मीठा दर्द जगाती
सबसे प्यारी मुझे तुम्हारी याद।
तारों भरी रातों में
हाथ लिये हाथों में
प्यारी, मीठी बातों में
वह चलना याद है।
तुमसे लड़ना, झगड़ना
हँसकर वह बातें करना
जानबूझकर मुझे चिढ़ाना
फिर गले लगाना याद है।
मेरे कामों में हाथ बंटाना
मुशकिलों में साथ देना
तुम्हारे साथ वह तैरना
तुममें खो जाना याद है।
तुम्हें छोड़ दूर जाना है मुझे
अपनी मंजिल को पाना है मुझे।
बाँधने की तुम कोशिश न करो
सफलता पाऊँ मैं, दुआ करो।
तन और साया भी साथ छोड़ते हैं
अंत तक सिर्फ़ आत्मा साथ देती है।
मन से मैं हमेशा तुम्हारे साथ रहूँगी
है प्यार सच्चा, सदा करती रहूँगी।
तुम बिन जी नहीं सकती
ऐसा तो नहीं मैं कहती।
पर तुम्हारा साथ जो होगा
तो जीने का अर्थ होगा।।

तुम बिन मर जाऊँ मैं
कर नहीं सकती ऐसा मैं।
पर वह जीना भी कैसा
सुगंध रहित गुलाब जैसा।।

तुम बिन साँसें मेरी होगी
लेकिन ज़िंदगी नहीं होगी।
न दे सको साथ हमेशा के लिये,
तो चाहूँ सिर्फ़, जीवन-भर के लिये।।
न कहो तुम्हें मुझसे प्यार नहीं
तुम्हारा मेरा कोई मेल नहीं
झूठे हैं वे लोग, जो कहें
नदी के दो किनारे मिलते नहीं।

हम नदी के दो किनारे हैं
जो पानी से जुड़े हुए हैं
हमारा प्रेम भी उस पानी जैसा
जो किनारों को सदा जोड़े हुए है।

जल जैसे कट नहीं सकता
हमारा प्रेम भी अब मिट नहीं सकता
प्रेम की धारा में बहते चलेंगे
तुमसे दूर रहूँ, हो नहीं सकता।
अंधेरे से मैं घबराती नहीं
तूने दीपक छीना तो क्या हुआ?
अकेले चलने से डरती नहीं मैं
तूने साथ छोड़ा तो क्या हुआ?

कष्टों को सारे झेलकर
अपनों के आँसू पोंछकर

फिरसे मुसकान लाऊँगी मैं
तुम कायर बने, तो क्या हुआ?

हिम्मत से आगे चलनेवाले
सहारे नहीं ढ़ँढा करते
दूसरों का सहारा बनूँगी मैं
तुम न बन पाए, तो क्या हुआ?
बादलों से घिरी काली रात
की थी तुम ने प्रणय की बात।
हथेली में लेकर मेरा हाथ
कहा था कभी न छोडूँगा साथ।
बातों-बातों में कट गई रात
आया था नवीन, सुंदर प्रभात।
आज भी बैठी हूँ लगाए आस
आओगे ज़रूर तुम मेरे पास।
इससे पहले कि रुक जाए साँस
मत तोडो मेरा यह दृढ़ विश्वास।
भूल हो गई मुझसे जो मैंने
ढँढना चाहा तुम्हें किसी और में।
तुम-सा कोई विश्व में होगा कहाँ
तुम हो जैसे सूर्य ब्रह्माण्ड में।
कहीं और कैसे मैं पाती तुम्हें
तुम तो रहते मेरे मन में।
जितना प्यार तुमसे पाया है
कमी न महसूस होगी, हज़ार जन्मों में।
चाहती थी मैं दौड़कर
करूँ तुम्हारा आलिंगन
मन का भाव बताती हुई
लूँ तुम्हारा एक चुम्बन।

लेकिन पाया न मैंने कभी
प्रेम का वह मधुर अनुभव
तरसती रही उस स्पर्श को
हुआ न कभी जो संभव।
मैंने प्यार किया एक निर्दयी, दुष्ट से
निचोड़ा जिसने मुझे तन-मन-धन से।

किया शारीरिक शोषण मेरा ऐसे
निष्प्राण कोई मैं मशीन हूँ जैसे
दिन-रात काम मनमानी की मुझसे
मैंने प्यार किया एक निर्दयी, दुष्ट से।

क्या यह सज़ा है, जो प्यार है उससे
भावनाएँ अमित मुझमें भी है बसे
उसने न कभी चाहा मुझे दिल से
मैंने प्यार किया एक निर्दयी, दुष्ट से।

मेरा धन तो अर्पित हुआ है उसे
मेरा तन-मन भी समर्पित है उसे
जीवन भर निभाना अब है उसी से
मैंने प्यार किया एक निर्दयी, दुष्ट से।


आध्यात्मिक - Spiritual

जग में कोई न होता अपना रे
माता-पिता ने तुझे जनम दिया
क्योंकि बच्चे होना ज़रूरी रे।
जीवन साथी इसलिये पाया
क्योंकि अकेला जीवन सूना रे।
बेटा-बेटी तुझे छोड़ गए क्योंकि
उन्हें थी भविष्य की चिंता रे।
अब तो संभल जा तू नादान दिल
ये बंधन-नाते सब झूठे रे।
तेरा साथी है सिर्फ़ भगवान रे
जग में कोई न होता अपना रे।
घमण्ड और अहंकार है मुझमें
मैं तुम्हारे काबिल कहाँ?
पाप, झूठ, लालच से भरा दिल
फिर भी तुम बिन जाऊँ कहाँ?

अब तो प्रभु शरण में ले लो
भटक चुकी मैं यहाँ-वहाँ
सच्चे प्रेमी, सच्चे साथी तुम हो
तुम बिन अब मैं जाऊँ कहाँ?

जाऊँ कहाँ कि हर जगह तुम हो
रोम-रोम, कण-कण, जहाँ-तहाँ,
तुम्हारे पास ही आऊँगी मैं
तुम-सा प्यारा कोई कहाँ?
तुमने दिया यह जीवन मुझे
दिये अच्छे माता-पिता मुझे
प्यार से भरा है जीवन मेरा
कैसे मैं धन्यवाद कहूँ तुझे।

खुशी के मारे कुछ भी न सूझे
प्यार के दीप ये कभी न बुझे
तुम्हारी दया को सदा दिल समझे
भक्ति भाव से याद करूँ तुझे।
न माँगूँगी मैं सुख अथवा दुख तुम से
न चाहती मैं दया की भीख तुम से।
न माँगूँगी मैं क्षमा अपने पापों की
न चाहती स्वर्ग अथवा नर्क अपने कर्मों की।
ज़िंदगी जो दें, करूँगी मैं स्वीकार उसे
राह में फूल हों या काँटे करूँगी पार उसे।
मैं चाहती हूँ अपने लिये सहनशक्ति तुम से
मैं माँगती हूँ धैर्य और लगन तुम से।
मेरी चाह को ईश्वर मना मत कर देना
तुम्हारे चरणों में मेरी यही है प्रार्थना
ज़ीवन के विशाल भवसागर में
डूबे जो मेरी कश्ती पानी में
तुम आकर मुझे न बचाना
चाहती हूँ मैं स्वयं पार लगाना।

जीवन के इस लंबे सफ़र में
गिर जाऊँ जो कहीं पर मैं
तुम आकर मुझे न उठाना
मैं चाहती हूँ अपनेआप उठना।

जीवन की राहों में कहीं
हो जाए जो मुझसे पाप कभी
तुम मुझे कभी क्षमा न करना
चाहती हूँ मैं उसका दण्ड भुगतना।

जीवन की समस्याएँ कठिन हैं
मेरी राहों में काँटे अधिक है
तुम मेरी सहायता न करना
मुझे केवल सहनशक्ति देना।
ईश्वर तूने मनुष्य को भेजा
प्रेम का प्रतीक बनाकर
पर हिंस्र पशु बन वे लड़ते
धर्म-मज़हब के नाम पर।

न्याय और धर्म के ज्ञाता हैं वे
पर करते अन्याय और अधर्म
धन के लोभ में नंगे नाचते
बने हैं नीच, करते कुकर्म।

प्रभु फिर से इस धरती पर
कृष्ण, अल्लाह या ईसा बन आओ
भटक गया है कुमार्ग में मनुष्य
उनको फिर सुपथ तुम दिखलाओ।
चिरसुख न देना कभी मुझे
पचा न पाऊँगी मैं उसे
खाने से जैसे अधिक मिठाई
चिढ़ होने लगती उससे।
कड़वी चीज़ खाकर ही
आता है मज़ा मिठाई का
दुख को झेलकर ही
ले सकूँगी आनंद सुख का।
परेशानियों का करूँगी
मैं यूँ डटकर सामना
कि भाग जायेंगे वे दूर
डर कर उन्हें पड़ेगा छुपना।
जलती हुई अगरबत्ती की सुगंध
फैली है सारे गृह में
उससे निकलते धुएँ को देख
आया यह विचार मेरे मन में।
सारे कक्ष में है सुगंध फैली
मन मोहक प्रसन्नता लानेवाली
एक स्थान पर स्थित रहकर भी
पूरे कक्ष में व्याप्त अगरबत्ती की
वह सुगंध बनकर फैली है
दिखें नहीं पर महसूस होता है।
भगवान भी कहीं पर स्थित रहते
किंतु हर भू प्राणी में निवास करते
अगरबत्ती सम स्थित रहकर
प्रेम, क्षमा, आशीर्वाद रूपी सुवास
हम तक पहुँचाते।
कदाचित ईश्वर हैं अगरबत्ती जैसे
पर जो न घटती न बुझती,
वह विशाल है
जिसका अंश है आत्मा बन हर जीव में,
इसीलिये कहलाता वह परमात्मा है।
कहते हैं गुरु बिना ज्ञान नहीं
शिक्षा जो दे सके मुझे
ऐसा गुरु मिला नहीं।
तुम सखा, तुम सहारे
तुम प्रभु, तुम सहारे
जानना चाहती हूँ मैं तुम्हें
दूसरा मेरा ध्येय नहीं।

मुझे ज्ञान दो, शिक्षा दो
चाहती हूँ, तुम मेरे गुरु बनो
प्रभु इच्छा मेरी पूरी करो
क्योंकि तुमसा ज्ञानी कोई नहीं
तुमसे बढ़कर तुम्हें जाने
ऐसा व्यक्ति मिला नहीं।
जिसे न तुमने देखा कभी
जिसे न मैंने देखा कभी
क्यों लड़ें उसके नाम पर
जिसे न हमने जाना कभी।

भगवान तो बसते दिलों में
हैं वे प्यार में, भाईचारे में
हिंसा को त्यागो, पाप से बचो
यही लिखा है सब ग्रंथों में।

मानवता को सब अपनाओ
सच्चा कर्म व पुण्य कमाओ
लोभी, मूर्ख, पागल न बनो
धर्म का सच्चा अर्थ जानो।

Introduction

BIO BLURB

Hello my dear cyber guest and a warm welcome!

Ms. Suchita Gotimukul has been teaching since 23 years. She has done her master’s Degree in Hindi and English Literature, Teacher Training, Bachelor’s in Education and IB training. She taught Hindi as a foreign language for 13 years to the study abroad/exchange program students at University of Hyderabad. She has been teaching Hindi online to students from around the globe on one to one basis. She has been actively conducting soft skills training program for individuals and corporate and spoken English training in various institutions. She is a firm believer that learning has no end and keeps attending different training programs like NLP (Neuro Linguistic Program), Law of Attraction, Tai chi, Yoga and meditation to enhance her knowledge. She also does Audio transcripts, translation projects; Proof reading, teaching Hindi on You Tube in her free time. She is a Nodal teacher for Aids Prevention Education Program, a certified yoga teacher and learns Hindustani vocal music for hobby.